Adbhuta Sagar अद्भुतसागरः-1
Brand: Chaukhamba Surbharti Prakashan, Varanasi
Product Code: CSG 415
Author: Shivakant Jha
Bound: Hard Cover
Publishing Date: 2006
Publisher: Chaukhamba Surbharati Prakashan
Pages: 22+2+626
Language: Sanskrit & Hindi
Availability: 6
श्रीमद्वल्लालसेनदेव-प्रणीत अन्वर्थक अद्भुतसागर नामक ग्रन्थ को दिव्यान्तरिक्षभौमोत्पात के अनुसार दिव्याश्रय, अन्तरिक्षाश्रय और भौमाश्रय – इन तीन भागों में विभक्त किया गया है। इनमें दिव्याश्रय और अन्तरिक्षाश्रय-युक्त अद्भुतसागर का पूर्वार्द्ध भाग मेरे द्वारा की गई हिन्दी-सहित पूर्व में ही प्रकाशित हो चुका है, जिसका अवलोकन करने का अवसर विद्वान् पाठकों को अवश्य प्राप्त हुआ होगा; परन्तु अपरिहार्य कारणवशात् उत्तरार्द्ध ‘भौमाश्रय’ का प्रकाशन तत्काल नहीं हो सका था।
मनुष्यों के दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों की निवृत्ति में ज्योतिषशास्त्र का स्थान सर्वोपरि है। इसमें अखिल ब्रह्माण्ड के रहस्यों को व्यक्त करने का सफल प्रयत्न किया गया है। इसलिए कहा भी गया है-
अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् ।
प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्राक यत्र साक्षिणौ ॥
इस ज्योतिषशास्त्र को सिद्धान्त, संहिता और होराभेद से वराहमिहिर ने
तीन स्कन्धों में विभाजित किया है-
ज्योति:शास्त्रमनेकभेदविषयं
स्कन्धत्रयाधिष्ठितं
तत्कात्यिपनयस्य नाम मुनिभिः संकीर्त्यते संहिता ।
स्कन्धेऽस्मिन् गणितेन या ग्रहगतिस्तन्त्राभिधानस्त्वसौ
होरान्योऽङ्गविनिश्चयश्च कथितः स्कन्धस्तृतीयोऽपरः ॥
(बृ० सं०, उपनयनाध्याय-९)
अर्थात् अनेक भेदों से युक्त ज्योतिषशास्त्र के मुख्यतः तीन स्कन्ध – संहिता, तन्त्र (सिद्धान्त या करण) और होरा हैं। जिसमें समस्त ज्योतिषशास्त्र के विषयों का विवेचन हो, उसे ‘संहिता’ कहते हैं। जिसमें गणित के द्वारा ग्रहगति का निर्णय हो, उसको ‘तन्त्र’ कहते हैं। इनके अतिरिक्त विविध जातक-ताजिक- रमल-केरलिप्रश्न-मुहूर्त्त आदि का निर्णय जिसमें हो, उसे होरास्कन्ध कहते हैं ।
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