Shrimad Shivadharmottar Puranamश्रीमद्शिवधर्मोत्तरपुराणम्
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यह अगस्त्य - स्कन्द के संवाद के रूप में उपलब्ध है। कामिकागम में शिवधर्मोत्तर का प्राचीनतम सन्दर्भ मिलता है। उसके तन्त्रावतार पटल में जिस ऋषि ने जिस विद्या शास्त्र को रचा अथवा प्रचारित किया, उनकी विस्तृत सूची मिलती है। यह पटल भारतीय शास्त्रों की उपलब्धता व उनके प्रसारित-प्रचारित होने के सन्दर्भ की दृष्टि से अति ही मूल्यवान है। क्योंकि, इसमें परा-अपरा भेद से शिव प्रकाशक ज्ञान और शिवज्ञान की सूचियाँ हैं। इनको भी लौकिक, वैदिक और आध्यात्मिक तथा अतिमार्गी, मन्त्र नामक और तन्त्रसम्मत भेदों में विभाजित किया गया है। यही नहीं, इसमें शास्त्रों को आपाद शिरस् स्वरूप में भी आकल्पित किया गया है। इसमें नृसिंह से प्राप्य सोमभेद नाम से जिन ग्रन्थों का उल्लेख है, वे पाँच प्रकार के बताए गए हैं और इनमें ही शिवधर्मोत्तर को स्वीकार किया गया है इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह शैवधर्म का उत्तरवर्ती पुराण है, इसमें कहा गया है— शिवमादौ शिवं मध्ये शिवमन्ते च सर्वदा । अर्थात् इसमें शिव ही आदि में, मध्य में और शिव ही अन्त में सदा विद्यमान है। उक्त वर्णन के परिप्रेक्ष्य में जब प्रस्तुत लेखक ने इसके पाठ का अनुसन्धान किया तो तेलुगु और नेवारी लिपि में पाठ उपलब्ध हुआ। इस उपलब्ध पाठ की यदि समीक्षा करें तो ज्ञात होता है कि शिवधर्मोत्तर अधिकांशतः संवाद शैली की अपेक्षा सीधे-सीधे ही लिखा गया है। इसमें कुल 12 अध्याय है और गद्य सहित मिलाकर लगभग 2000 श्लोक हैं। पुराण के अध्यायों का स्वरूप उनके अन्त में उपलब्ध पुष्पिकाओं के क्रम से इस प्रकार ज्ञात होता है -
1. गोषडङ्गविधिर्नाम प्रथमोऽध्यायः । (कुल श्लोक 150)
2. विद्यादानफलं नाम द्वितीयोऽध्यायः । श्री साम्ब सदाशिवार्पणमस्तु । (कुल
श्लोक 196)
3. पञ्चमहायज्ञगुणाध्यायो नाम तृतीयोऽध्यायः । (कुलोक 881 12 )
4. सत्पात्रं गुणं नाम चतुर्थोऽध्यायः । (कुलोक 1992)
5. शिवसङ्गत्य नाम पञ्चमोऽध्यायः । (कुल श्लोक 153) 6. पापभेदं नाम षष्ठोऽध्यायः । (कुल भोक 101)
7. नरकविशेषन्नाम सप्तमोऽध्यायः । (कुल नोक 253)
8. संसारप्रसवाख्यानं नामाष्टमोऽध्यायः । (कुल श्लोक 235 )
9. स्वर्ग-नरकचिह्नो नाम नवमोऽध्यायः । (गद्यपाठ एवं लगभग 10 नोक)
10. ज्ञानयोगो नाम दशमोऽध्यायः । (कुल लोक 198)
11. प्रायश्चित कथनं नामैकादशोऽध्यायः । (कुल लेक 18712 )
12. पातालादि शिवलोकपर्यन्तानां लोकानां निरूपणं तत्र विशेषतो गोलोकवर्णनं द्वादशोऽध्यायः । (अतिभागो न विद्यते, पाण्डुलिपि अपूर्ण, नोक लगभग 247)